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हिन्दू विधि के स्रोत क्या है? | What are the sources of Hindu law in Hindi

हिन्दू विधि के स्रोत क्या है? | What are the sources of Hindu law in Hindi


हिन्दू विधि के दो प्रकार के मुख्य स्त्रोत है। वे प्राचीन स्त्रोत और आधुनिक स्त्रोत है। इस लेख के माध्यम से हम हमरारे पाठकों को हिन्दू विधिके स्त्रोतों के बारोमें संपुर्ण जानकारी सरळ और आसान भाषामें बताने वाले है। तो आईये इस लेख के माध्यम से आज हम हिन्दू विधि के स्रोत क्या है? | What are the sources of Hindu law in Hindi इसके बारेमें जानकी हासिल करने की कोशीश करते है।


हिन्दू विधि के स्रोत:-

स्रोत इस शब्द का अर्थ है "वह आधार जिससे विधि का विकास किया गया हो।” अतः मे विधि का स्रोत वह आधार है जिससे न्यायालयों को विधियों की व्याख्या करने में मदद मिलती है । हिन्दू विधि लगभग 6,000 वर्ष पुरानी है। इसके स्रोतों का अध्ययन दरअसल बदलती परिस्थितियों के अनुसार इसमें आये विकास के विभिन्न चरणों का अध्ययन होता है। हिन्दू वेदों को सारे ज्ञान का मूल आधार माना जाता है। हिन्दू विधि न केवल दैवी है बल्कि यह परम पवित्र, अलंध्य और अपरिवर्तनीय है। इन पर न तो प्रश्न उठाये जा सकते हैं, और  न ही इन पर संदेह किया जा सकता है।


हिंदू कानून के प्राचीन और आधुनिक स्रोत का वर्णन करें और समझाएं ?:


1. प्राचीन अथवा पारंपरिक स्रोत :
(i) श्रुतियाँ (वेद)
(ii) स्मृतियाँ
(iii) निबंध तथा भाष्य
(iv) परम्परायें



2. आधुनिक स्रोत :
(i) समानता, न्याय और सद्विवेक
(ii) पूर्व दृष्टान्त (Precedent) तथा
(iii) विधि/कानून (legislation)


1. प्राचीन/पारंपरिक स्रोत :-

प्राचीन हिन्दू संस्क्रृती से हि हिन्दू विधिकी शुरूवात हुई थी। प्राचीन हिन्दू विधि निम्नलिखित श्रोतों को ही मान्यता देती है:-

(i) श्रुति (वेद) :-
हिन्दू विधि के मुख्य आधार श्रुति (वेद) हैं। चारों वेद ही हिन्दू धर्म और विधि के स्रोत हैं। “श्रुति” का शाब्दिक अर्थ “सुना गया" है। अर्थात, “ऋषियों द्वारा सुनी गई देववाणी ही श्रुति है।” वेद का अर्थ है ज्ञान। वेद चार हैं- ऋावेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्वेद। वेदों में ईश्वरीय वाणी संग्रहीत है। वेद हिन्दुओं की पावन विद्या तथा गोपनीय ज्ञान का भंडार हैं।

(ii) स्मृतियाँ :- 
वेदों के बाद, हिन्दू विधि के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत हैं स्मृतियाँ। “स्मृति" का शाब्दिक अर्थ है "स्मरण किया हुआ ज्ञान"। श्रुति (वेद) साक्षात ईश्वर की वाणी हैं जो ऋषियों द्वारा सुनी गई थी, जबकि स्मृतियाँ ऋषियों द्वारा सुनी गई ईश्वरीय-वाणी से याद रहीं। सबसे पहली स्मृतियाँ धर्म-सूत्र कहलाती हैं। उनका संग्रह मुख्यतः गद्य रूप में गुरूओं द्वारा अपने शिष्यों को वेदों में निहित ज्ञान समझाने के लिए लिखा गया था। परवर्ती स्मृतियों को धर्म-शास्त्र की संज्ञा दी गई है और इन्हें धर्म-सूत्रों की तुलना में अधिक सुव्यवस्थित व्याख्या माना जाता है। इन स्मृतियों की विषयवस्तु आचार-व्यवहार तथा प्रायश्चित दो भागों में है। विधि के सिद्धान्त मुख्यतः व्यवहार वाले हिस्से में वर्णित हैं। मनु, नारद और याज्ञवल्क्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्मृतिकार हैं । मनुस्मृति सबसे प्राचीन स्मृति है और इसे "विधि का भंडार" माना जाता है।


(iii) निबंध / टीका तथा भाष्य (Digests and Commentaries) :- 
निबंध तथा भाष्यों की रचना 700 ई. से 1700 ई. के मध्य के लगभग 1000 वर्षों के बीच हुई थी। महत्वपूर्ण स्मृतियाँ और टीकायें निम्नलिखित हैं-
    1. मेधातिथि रचित मनुभाष्य (895-900 ई.),
    2. कुलुक भट्ट रचित मानवता मुक्तावली (1250 ई.), 
    3. विज्ञनेश्वर रचित प्रसिद्ध टीका मिताक्षर (1100 ई.), 
    4. अपारक रचित अपरादित्य (1200 ई.)
    5. दक्षिण भारत के देवम्माभट्ट रचित स्मृति चन्द्रिका (120 ई.), 
    6. पश्चिम भारत के मित्र मिश्र रचित विरामित्रोदय (17 वीं शताब्दी), 
    7. मिथिला के वाचस्पति रचित विवाद चिन्तामणि ( 15 वी. शताब्दी) 

बनारस में रचित विरामित्रोदय तथा एक और विख्यात रचना दयाभाग जिसे जीमूतवाहन द्वारा 12 वीं शताब्दी में रचित किया गया । स्मृतियों में वर्णित नियमों में स्पस्टता की कमी थी तथा उनमें विरोधाभास भी थे। न्याय के उचित निष्पादन के लिए यह आवश्यक था कि टीका तथा भाष्य लेखक स्मृतियों का सही तरीके से विश्लेषण कर उसे व्यवस्थित रूप दें । अधिक महत्वपूर्ण टीकायें हैं- मनुतिका, मनुभाष्य, मिताक्षर दयाभाग इत्यादि ।

(iv) परंपरा (Custom) :-
“परम्परा" शब्द का अर्थ है “आचार अथवा आचरण", किसी समाज की लंबे समय से चली आ रही प्रथा को परम्परा कहते है। हिन्दू दर्शन यह प्रतिपादित करता है कि “आचार परमोधर्मः” न्याय के उचित निष्पादन के लिए विधि की व्याख्या का यह एक अच्छा साधन है। “परम्परा” किसी भी समाज में पीढ़ी-दर-पीढी चली आ रही वह प्रथा है जिसकी शुरूआत कब से हुई इसकी जानकारी किसी को नहीं है।


किसी परम्परा के विधिमान्य होने के लिए निम्नलिखित शर्तों का पूरा होना आवश्यक है – 
(क) परंपरा प्राचीन हो 
(ख) परंपरा अभी भी प्रचलन में हो 
(ग) परंपरा तर्कसंगत हो 
(घ) परंपरा नैतिक हो 
(ज्ञ) परंपरा का कानून से कोई टकराव नहीं हो।


सामाजिक परंपरा
(i) स्थानीय परंपरा
(ii) पारिवारिक परंपरा
(iii) जाति अथवा समाज में प्रचलित परंपरा


(i) स्थानीय परंपरा:- 
स्थानीय परंपरा उसे कहते हैं जो एक विशेष सीमित क्षेत्र में ही प्रचलित होते है। साथ ही, जिस विशेष क्षेत्र की यह परंपरा है उस क्षेत्र के सभी लोगों पर वह स्थानीय परंपरा लागू होती हो। यह स्थानीय परंपरा, जाति-परंपरा अथवा पारिवारिक परंपरा से भिन्न होती है।

(ii) पारिवारिक परंपरा :- 
पारिवारिक परंपरा किसी परिवार विशेष के लोगों पर ही लागू होती है। कोई परंपरा जो सिर्फ किसी परिवार विशेष के सदस्यों पर ही लागू होती है काफी लम्बे समय से हिन्दू विधि के रूप में मान्य है। कोई पारिवारिक परंपरा, जो उस क्षेत्र-विशेष, जिसमें वह परिवार रह रहा हो, उसमें प्रचलित किसी परंपरा अथवा विधि से भिन्न हो, उसे प्रमाणित किया जा सकता है तथा उसे अधिकारपूर्वक लागू भी किया जा सकता है। पारिवारिक परंपरा को किसी स्थानीय परंपरा की तुलना में अधिक आसानी से त्यागा जा सकता है।

(iii) जाति अथवा समुदाय परंपरा :- 
हिन्दू स्वीय विधि  के अन्तर्गत सबसे बडा दायरा जाति परंपरा का है । जाति अथवा समुदाय परंपरा उस जाति अथवा समुदाय के सभी लोगों पर अनिवार्य रूप से लागू होती है चाहे वो कहीं भी रहते हों। पंजाब की ज्यादातर पारंपरिक समुदाय विधि इसी प्रकार की है । जाट की वह परंपरा जिसके अन्तर्गत कोई जाट अपने भाई की विधवा से विवाह कर सकता है, अथवा दक्षिण भारत की वह परंपरा जिसके तहत कोई दक्षिण भारतीय व्यक्ति अपनी बहन की बेटी से विवाह कर सकता है, या फिर वह परंपरा जिसके अन्तर्गत अपनी बेटी के बेटे या बहन के बेटे को गोद लेना मान्य है, इसी श्रेणी में आते हैं।

2. आधुनिक स्रोत :-

हिन्दू विधि के आधुनिक स्रोत निम्नलिखित हैं:

(i) समता, न्याय और सद्विवेक:-
समता, न्याय और सद्विवेक यह ब्रिटिश विधि के सिद्धान्त है। जिसकी शुरूआत अंग्रेजों द्वारा भारत में न्याय की प्रक्रिया हाथों में लेने के बाद हुई थी। प्राचीन हिन्दू विधि में समानता, न्याय और सद्विवेक की अलग परिभाषा है। गौतम के अनुसार ऐसे मामले जिनके लिए कोई पूर्व निर्धारित नियम नहीं हैं, उनमें वह नियम अपनाया जाना चाहिए जिसका कम से कम दस लोग, जिन्हें अच्छी तरह मार्गदर्शन दिया गया हो, जो युक्ति संगत से बातें कर सकते हों, और जो किसी प्रकार के लालच मुक्त हों, अनुमोदन करते हों। ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित कई उच्च न्यायालयों के शासनपत्र में यह निर्देश था कि जहाँ किसी मुद्दे पर विधि में कोई स्पस्ट मार्गदर्शन नहीं हो, उस मामले को समानता, न्याय और सदविवेक की कसौटी के आधार पर निपटाया जाना चाहिए। बाद में भारत के उच्च न्यायालयों ने भी जिस मामले में हिन्दू विधि का कोई नियम लागू नहीं होता हो, वहाँ समानता, न्याय और सदविवेक के सिद्धान्त को लागू करने का निर्णय उच्च न्यायालय द्वारा लिया गया।

(ii) पूर्व दृष्टान्त :-
आक्सफोर्ड शब्दकोश के अनुसार “पूर्व दृष्टान्त" शब्द का अर्थ है पहले हुई कोई घटना या उदाहरण, जिसे बाद में होने वाले मामलों में नियमानुसार मार्गदर्शक के तौर पर प्रयोग किया जा सकता हो। दूसरे शब्दों में किसी न्यायालय द्वारा पूर्व के किसी मामले में लिए गए निर्णय को बाद के किसी मामले में वैसी ही परिस्थिति और तथ्यों के होने की दशा में निर्णय लेने का आधार बनाया जाय तो उसे न्यायिक “पूर्व दृष्टान्त"  कहा जाता है। यह न्यायाधीशों द्वारा बनाये गये कानून होते हैं। हिन्दू विधि के प्रावधानों की व्याख्या की प्रक्रिया में कभी-कभी न्यायालय विधि के नये सिद्धान्तों की रचना भी कर देते हैं। ऐसे नये सिद्धान्त भी हिन्दू विधि के श्रोत ही माने जाते हैं। ब्रिटिश काल में प्रिवी काउंसिल और आधुनिक काल में उच्च न्यायालयों तथा उच्चतम न्यायालय ने पुराने नियमों की व्याख्या की प्रक्रिया में कई नये सिद्धान्तों की स्थापना की है। इस प्रकार हम पाते हैं कि न्याय प्रशासन की प्रक्रिया में पूर्व दृष्टान्त काफी महत्वपूर्ण होते हैं। उच्चतम न्यायालय द्वारा बनाये गये कानून उच्च न्यायालयों के साथ-साथ अन्य सभी न्यायालयों पर अनिवार्य रूप से लागू होते हैं। 


(iii) विधान / कानून (Legislation) :-
लेजिस्लेशन यह शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द "लेजिस्लेटम" से हुई है जिसका अर्थ होता है कानून बनाने का अधिकार। सालमोंड के अनुसार "विधान / कानून (legislation) विधि के वे श्रोत हैं जिनमें सक्षम पदाधिकारी द्वारा घोषित कानून का समावेश रहता है" विधान/कानून का निर्माण करने 'वाली संस्था को "विधान निर्माण सभा"  या "व्यवस्थापिका सभा"  या "विधान मंडल'  कहा जाता है। ब्रिटिश शासन काल के दौरान कुछ विधानों/कानूनों के माध्यम से हिन्दू विधि में कई बदलाव किये गये और साथ हि नये प्रावधानों को उनमें शामिल किया गया।



इस लेख के माध्यमसे हमने हमारे पाठकों को हिन्दू विधि के स्रोत क्या है? | What are the sources of Hindu law in Hindi इसके बारेमें सरल और आसान भाषामें जानकारी देनेका पुरा प्रयास किया है। आशा है आपको यह लेख पसंद आया होगा। इसीतरह कानूनी जानकारी हासिल करने के लिए आप हामारे apanahindi.com इस पोर्टल पर हमेशा भेट दें। 


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